उस चार दीवारी के अन्दर अवसादी सा जंगल था।
जिसका कोई ओर न छोर कहीं स्वयं से स्वयं का दंगल था।
दिन-रात झूझता था मैं उलझन,भय,सिंह रूपी सपने से।
हाँ टूटता था मन मेरा भी कभी श्वास के मनके जपने से।
कभी शिथिल सवयं को पाकर मैं स्वयं ही चेतन हो जाता था।
श्वास-प्रश्वास को गिन अपनी उम्मीद की किरण जगाता था।
अवसाद भरी इस रात का दाता 'मैं'था मेरा कोई और न था।
लगता ये था इस पीडा का कभी-कही कोई भी भोर न था।
बस एक लौ जगी अन्तस में मैं सोते से जाग गया।
किया पराजित हर विपदा को डर मुझसे डरकर भाग गया।
ये सोच हमारी ही हमको नव ऐहसास से जा मिलवाती है।
नव ओज सा भरती है हममे पाषाण से जा टकराती है।
सुधा भारद्वाज"निराकृति"
विकासनगर उत्तराखण्ड